तन्हाई में गुजर रहे हैं
सावन वर्षों से नही बरस रहे हैं
कभी घटा बन उड़ आओ
मेरा गांव वर्षों से तरस रहे हैं
साड़ी तेरी उपवन की छटा
बरस जाओ घनघोर घटा
आंखे हो गई है मरुस्थल
जरुरत है आसुओं की प्रिया
पल पल भर में बरसती थी
आज़ कई वर्षों से न बरसी
एक और आखरी आश थी
भुल क्यूं गई मेरे गांव की गली
तेरा आना पहर भर कभी
कोई नदी की लहर सा था
रुठे हो क्यूं बताओं तो सही
किनारा तेरा अधर सा था
कोई था उतरता तलब में तेरी
मन भर जाता अधर देख तेरी
गांव की थी तू नदी अकेली
कैसे अब प्यास बुझेगी अलबेली
भूख नही प्यास बुझती नही
खेल कोई थी हुई जादुई
बयार चीखती हुई पूर्व की
बरस जाओ सावन की सखी
#बेढँगा_कलमकार
✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)
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