शुक्रवार, 10 मई 2024

किरण थी बेला सुबह की उठा के तप्त हो झरोखे से विलुप्त हो गई

कवि..


लिखी थी जो पंक्ति

अतिसुंदर थी

पंक्ति या देखी जो तस्वीर झरोखे से थी


मन को विचलित करती

अक्षर लख पुरस्कृत

गढ़ गढ़न चंचल चितवन

पंक्ति क्यूं संवरती चली गई


दृष्टि दया भावना से प्रेरित

सम्मान की बात करती

हठ योगिनी साधना

झटपट कसम दे गई 


कई बात छिपाई

सुनाई भी त्याग दुनियां का नियम

मूल्य मौलिक यापन जीवन की

किरण थी बेला सुबह की 

उठा के तप्त हो झरोखे से विलुप्त हो गई


मान रख अब तू

बेला हूं मैं 


हर बार उतना ही लिख

जितना समझ 


अक्षर चार, दो शब्द

एक वाक्य न हो, सब कुछ समझा तो दी ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

शुक्रिया 💗

थी आवाज भर, जो कभी सुकून

सजीव तस्वीर, वो नज़र, काजल, बिंदियां  कमाल की थी मुस्कुराता चेहरा, छिपी उसमें गुनेहगार भी थी दी थी जख्म, दर्द नहीं  कराह थी, शिथिल पड़े  एहस...