कैद कर रखे है दो जून के रोटी के लिए
फ़िर भी जले कभी चूल्हा एक बार
बहाते है दिन-रात पसीने की गंगा
ताकि आबाद रहे दर्द से हर साल
बन गया है अब हालात पुराना
जख्म सहने की यह बात पुराना
रोते बिल्बिलाते है उनके बच्चे
कन्दरे से ये शेर का दहाड़ पुराना
कमीज जो चक्तियो से अब तक दूर न हो पाया
बने रहे हालात वही कि झुग्गी-झोपड़ी से दूर न हो पाया
दर्द सहने की लत जब लगने लगा
तभी मन में अस्थिर सवाल आया
है इस दर्द की दवा जब पता चला
तब जन मानस शहर की वोर चला
दर्द जब कुछ सहमा ही था
तभी एक जलजला उद्गम हुआ
प्रतिबंध तब लगने लगा
हालात ये की जन- मानस घर लौटने लगा
मशीनो की नगरी फ़िर विरान होने लगा
दर्द फ़िर से बढ़ने लगा
दिल कहता है कि उस उर्जा को इत्तला कर दूँ क्या
भूखा - प्यासा रहूँ, और ख़ता कर दूँ क्या
जंगे हालात न बने उससे पहले
उस दहशत और दर्द को दफ़ा कर दूँ क्या
उठा प्रश्न चिन्ह फ़िर
हालात सदैव यही रहेगा क्या
दर्द और पीड़ा जन-मानस
सदैव सहेगा क्या
शासन - प्रशासन सिर्फ अल्फ़ाज है क्या
दर्द दे रहा है इतना , यही इन्साफ़ है क्या
#बेढँगा कलमकार ✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)
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