मोहब्बत की कशिश, जुबान बंद थे
वो देखते रहे, हम कुछ कह भी न पाये
चलती गई बीच शहर से बस
समय घटता रहा, दूरियां बढ़ती गई फिर
उनकी नज़रें आग समेटे हुई थी
मानों लगी आग वर्षों से हो
जो नज़र मिल जाती, मेरी भी उनसे तो
डर था कि जलने से, बचाते कैसे खुद को
परदा पड़ गया था अक्ल पे
कहना बहुत कुछ था, न कह पाए उनसे
ज़हर का प्याला भी, अमृत समझ पीते तो
हम भी औरों की तरह, मर गए होते फिर
कही खबर लग जाती तो
शहर भर बदनामियां होती बहुत
हार कर भी उम्मीद बांध लेते थे जो
सारी उम्मीद खुद के ख़ुद ख़त्म हो गई होती फिर
#बेढँगा_कलमकार
✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)
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