रविवार, 6 मार्च 2022

एक थी दोस्ती और वो भी , अब चला नहीं पाते

किसी के नजरों में 

गिर गया

कसूर न था 

इश्क था दोस्ती था 

और कुछ नहीं

बस मजबूर था 


सबूतों के तर्ज़ पे 

खड़ी थी मीनार

सबूत न देते , नाराज़ रहते 

आंख में आसूं थे 

और कुछ नहीं

बस काबुल न था


तकलीफ़ पर माफियां

कैसे मुस्कुराते

ज़ख्म पर नमक

कैसे भूल जाते 

हक कह कर चल बनते 

कॉल का मरहम 

कैसे सहन करते 


रात आधी, खुली आसमां

और कुछ नहीं 

नींद नही , खुली आंखें 

और कुछ नहीं

भूखे थे , प्यासे 

नहीं कोई गलतियां

बोलो कैसे सह पाते


कैसी है उनकी नज़रें 

पहचान नहीं पाते

वक्त कम बातें बहुत

बता नहीं पातें 

एक थी दोस्ती और वो भी

अब चला नहीं पाते


#बेढँगा_कलमकार 

✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)

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