सुबह कलियां खिलते हुए
मुरझा जाती है दिन ढलते ढलते
उदास है जिंदगी एक आश के लिए
आ जाओ मिलने तो सही
बुढ़ापा आ रहा है उम्र बढ़ते बढ़ते
मालूम है तुम्हे हर पल की कदर
ठहर कर अब देर न कर
इंतजार में कोई बैठा है मुतलक
दिन ढल रहा है अंधेर न कर
दुआ में मांगी हर चीज़ मिल गई
एक तू जो दूर है
बात न किया कर मुस्कुरा कर इतना
कोसो पैदल चलने को मजबूर न कर
कि मैं तुम्हे अपने घर जाते हुए देखा था
कितनी हसीन हो तुम
बस चेहरे पर थोड़ा घमंड था
नही तो बड़ी नमकीन हो तुम
एक राज था दिल में, बताने को था तुम्हे
कि माथे की बिंदिया जान ले लेती है मेरी
कोई ईद चांद के इंतजार में है
पर मैं कैसे कहूं ईद मैं, चांद तू है मेरी
#बेढँगा_कलमकार
✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)
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