गुरुवार, 28 जुलाई 2022

मैं शाहजहाँ सा, वो मुमताज़ सी थी

वो बादलों में घिरी चांद सी थी 

मैं शाहजहाँ सा, वो मुमताज़ सी थी 


लिखी थी वो कभी तख्त पर

कि तुम कलम सा, मैं दवाद सी थी


बिछड़ना जरूरी था मिलने जैसा 

जितनी दिन थे, तुम ख़ास सी थी 


दुआ में मांगी मन्नत तो नही 

पर रात में आयी, तुम ख़्वाब सी थी


बादल सा मैं, वो चिकनी चांद सी 

मैं घटा बन बरसता,

वो कड़क बिजली की प्रकाश थी


मैं तो कभी कभी आता, 

पर वो हर रात की रानी चांद थी


#बेढँगा_कलमकार 

✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)

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