सजीव तस्वीर,
वो नज़र, काजल, बिंदियां
कमाल की थी
मुस्कुराता चेहरा,
छिपी उसमें गुनेहगार भी थी
दी थी जख्म, दर्द नहीं
कराह थी, शिथिल पड़े
एहसास,
बना फिरता हूं पागल, मिली कोई आज ही थी ।।
थी आवाज भर,
जो कभी सुकून
उसकी बाहें, करती थी जो
कभी महफूज,
अचानक कुंभ में मिलना
मिलाप अंगुलियों का सर्फ़ी
फिर होठों का कुल्हड़ से
लगी ज्यादा बेहतरीन, उससे कहीं ।।
पर,कसमकश चाहत, वो बातें
पर, मजबूर थी वो रातें
नदी का तराना, जमाव भीड़ का
थी जहां गूंज प्रीत की, थी वहीं रीति की ।।
देखना जिंदा उसमें,
आज भी फिर खुद को
खोजने बैठ गया फिर, संगम तीर
उकेरने लगा उसके,
आज वहीं सालों पुरा तस्वीर को ।।
गूंज, आवाज़ थी बहुत,
टूटा शीशा सा पुनः फिर
दिल, आवाक, अब आवाज न थी,
जब तस्वीर में वो सालों पुरानी बात न थी ।।
#बेढँगा_कलमकार
✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)