मीनार ढह रहा है, फिर भी अकड़ जाती नही
मछली की तड़प, तड़प नजर आती नही
आज कड़क गर्मी है, सड़क मरते बहुत
फिर भी जोगी की शिमला नजर आती नही
भीड़ बोलते बहुत थे, शहर सन्नाटा पसरा था
कई जर्जर महल थे, उनको कहा पता था
शेर की तरह दहाड़, अजीब सा रहे थे
पता था हमे भी, फेंकते हैं, फेंक ही रहे थे
तकलीफ़ हैं तुम्हे , हा मुझे भी
खोखले थे, खोखले ही, रहेंगे भी
गरज गरज कर आवाज बस करेंगे
ये वो बादल नही है जो बरसात करेंगे
आदतें गुंहेगार की, नाटक नाटककार की
मूंगफली तोड़ें हैं, आदतें फोड़ फाड़ की
बनाए कुछ नही, लुटना लुटाना हर बार की
बस फेकेंगे, फेंकना काम ही है, इनका हर बार की
गलतियां हुई हैं, शहर रोशन की तरह
नौकरी है नही, काहे मरे प्रमोशन की तरह
बोलता है, हकलाता तो बिल्कुल नही
नफ़रत है बस उनको, पड़ोसन की तरह
बीत बातों को खोल, काम करता है
अजीब मेहमान है, बड़ी खबर में रहता है
एक तो बिन बुलाए, कही भी चला जाता है
दूसरा केवल व केवल, शराफत की बात करता है
ख्वायिस नही थी, कुछ भी कहने की
दिख रहा था, जरुरत भी नहीं थी, लिखने की
बर्दाश करूं भी तो कैसे
जब किसी की आदत ही हो, बस फेंकने की ।।
#बेढँगा_कलमकार
✍ इन्द्र कुमार (इ.वि.वि.)